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  • Writer's picturegauri nadkarni choudhary

तनहा

Updated: Jun 3, 2021


इक तनहा सी रुह थी मेरी,

ज़माने में सुकून ढूंढती थी।

कुछ बेरंग से ख्वाब थे उसके,

उनके लिए रंग ढूंढा करती थी।

इक रोज सागर से वो मिली,

हर पहर अलग था रंग उसका।

केसर सी सहर थी उसकी,

मोरपंख सी थी रात।

कहाँ मिलते हैं रंग इतने?

कैसे हैं ये तुम्हारे पास?

मेरा अपना तो कुछ नहीं,

पानी होता है बेरंग।

आसमाँ को माना है अपना यार,

ये रंग उसने ही दिये हैं उधार।

इक रोज़ वो बगीचे से मिली,

उसमे रंग थे कई हज़ार।

हर फूल का था रंग अलग,

हर कली का अलग निखार।

कहाँ मिलते हैं रंग इतने?

कैसे हैं ये तुम्हारे पास?

इसमें से मेरा कुछ भी नहीं,

ज़मीन तो होती है बेरंग।

इन पौधों को मैंने दिया था प्यार,

ये रंग उन्होंने ही दिये हैं उधार।

आज मेरी रूह भी रंगीन है,

है उसमें भी रंगों की बहार।

आज उसने भी इंसानियत दे कर,

दोस्तों से लिए प्यार के कई रंग उधार।



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